June 26, 2011

भोला बचपन, सच्चा तन मन...

कई सपने बुने थे हमने हाँ हम सब ने,
नन्ही पलकों में भी जागे थे अरमान कितने,
अपने भविष्य को कल्पना के झूले में संजोगे,
परिश्रम और सच्चाई का पथ चुना था हमने,

विघ्न आयेंगे पथ में इतने सोचा था ये किसने,
पागल मन में एक जोश सर चढ़ के बोल रहा था,
ये भी न सोचा के पाने की होड़ में त्याग देने होंगे,
कभी दोस्तों का साथ तो कभी सच्चाई से समझोता,

सपने के इस दौड़ में, पाने की इस चाहत में ,
क्यों मोहरा हम बन गए, शतरंज की बिसात में,
वो भी एक जमाना था जब राजनीति से थी हमें घृणा,
फिर क्यों हम उस राजनीति का एक हिस्सा बन गए,

इसे डर कहू मैं या कहू जीने की एक सहूलियत,
एक एक समझोते से पनप गयी एक कमजोर आदत,
कहा बिछुड़ गयी वो सच्चाई वो कर्मठता वो झुझारुपन,
बर्बर इस जनमानस के बीच खो गया वो भोला बचपन....

2 comments:

Ramesh said...

You are too young to write a poem on this theme :)

These days you are in a very reflective mood (last two posts).

Btw - you should submit your Hindi poems to a Hindi forum. There aren't many excellent Hindi writers like you.

Vishal said...

@ Ramesh - Are there any hindi forums that you are aware of... not that I am aware of. Would be great to read and share more.

It is because of a passionate reader and blogger like you, I get inspired to write few threads :) I am glad you are liking them :)

Yes, past few weeks have been quite circumspective and my posts do take cognizance of the events happening around me. My concern is more on the method that we delpoy in order to chase our development. Even if one is following the correct method and right path, system makes sure that you won't get there that ways. Enough bottlenecks in the system. Sad but true.