September 5, 2010

चित्त की अभिलाषा...

वह भी एक समय था, वह भी एक युग था,
जब इस समाज में केवल सुख ही सुख था,
कोई द्वेष नहीं था, नहीं था कोई भेद-भाव,
प्रेम और सौहार्दता से सुगन्धित था प्रत्येक गाव...

विधाता की चाक पर ये कैसा परिवर्तन आया,
"मानव" के तन से क्यों लुप्त हुई स्वयं की काया,
इसे प्रकृति का नियम कहू या "मानव" का अभिमान,
भगवान् का अभिशाप कहू या दानव का वरदान...

धर्म के नाम पर हम परिजनों से क्यों लड़ते है,
रुढ़िवादी विचारों को क्यों हम स्वीकार करते है,
द्रव्य की कामना में चरित्र से समझोता करते है?
लोभ और स्वार्थ के खेतों को लहू से सिचते है?

मेरे पूर्वजो ने कभी नहीं की ऐसे भविष्य की कामना,
क्या उत्तर दूंगा उनको जब होगा उनसे मेरा सामना,
ए मनुष्य, हो सके तो समझ ले "गीता" की भाषा,
धरती को स्वर्ग बना दे, ये मात्र है चित्त की अभिलाषा...

2 comments:

Ramesh said...

Lovely words Vishal. Unfotunately, Utopia is only a mirage - it never was, never is and never will be.

Vishal said...

@Ramesh - Thanks! Unfortunate indeed... I wish some way the misery could be eradicated entirely!

Recent revelation of spot fixing in Cricket shocked me like anything and hence the thoughts.